Friday, November 3, 2017

मानव स्त्री

मैं चार दिशाओं और
आठो प्रहरों की तरह
चार मुख वाले
बह्मा सी,
हर तरफ देखती
खोजती,रचती।

अपने शरीर को
बेखेरती और समेटती,
अपनी आयु के साथ,
दिन-रात चंदमा सी,
घटती बढ़ती ही रही।

मेरा अपने को खोजना
मेरा कलंक है।
मेरा अपने को निहारना
मेरा दुश्चरित्र।
मेरा अपने लिया अपने हृदय
का कुछ अंश रख लेना
मेरा छल।

आह ! मानव बड़भागी,
क्या तुम हमेशा  पुरुष ही रहोगे?