Monday, April 23, 2012

मुझ जैसी बन जाती है



                                                            
उसकी कथा और व्यथा 
कभी ख़तम न होती है ,
उसके तन के चीथड़ो मे
उसकी  लाचारी रोती है !

जब उसका बच्चा साथ आता है 
मेरे संगमरमर से घर को,
मेरी दिमागी आँखों मे, 
गन्दा सा कर जाता है!

वो  रौज़ आती है
मेरे महल को  चमका जाती है 
पर उसके झोपड़े मे
एक सूर्य किरण तक न झांक पाती है ! 

दो भूखी भूखी आँखों से 
वो हर पल मुझे निहारती है ,
और फिर बंद कर आँखों को
मुझ जैसी बन जाती है  !

मै उसको 'माई' चिल्लाती हु,
वो मुझको 'मैडम' बुलाती है,
मेरे दिये पुराने कपड़ो मै
वो अपना सपना जी  जाती  है!


वो  मुझ जैसी  बन जाती है !!!!!!!!!!!



 


 
 
 

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